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ये उन दिनों की बात है...

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उन तमाम यादों का पिटारा तब खुल ही जाता है जब हम अपने पुराने दोस्तों के साथ काफी लम्बे समय के बाद बैठते हैं. जितना उत्साह उनसे दोबारा मिलने का होता है उससे कहीं ज्यादा उत्साह उनसे पुरानी यादों को तरोताजा करने का होता है. वो हिलती हुई पुरानी सी लकड़ी की मेज अब नयी हो चुकी है. प्लास्टिक की कुर्सियों की जगह अब बढियां लकड़ी की कुर्सियां लग गई है. बदलाव तो बहुत हुए हैं लेकिन नहीं बदले तो वो होटल को चलाने वाले 'अंकल जी'. जिनके बाल कुछ सफ़ेद हो गए हैं और वो पहले से ज्यादा स्मार्ट हो गए है. फर्क तो अब भी नही है आखिर उन्होंने अपनी बूढी डबडबाती आँखों से पहचान लिया हमें.. कैंटीन में ठहाके तो पहले भी लगते थे लेकिन उन ठहाकों में शरारत भरी आवाज के साथ गजब का जोश भी हुआ करता था. आज हम साथ में तो बैठे है लेकिन अब शरारत समझदारी बन चुकी है और वो वाला जोश जिम्मेदारियों में कहीं गुम हो गया है. चलो खैर है इस बात की, की उम्मीद तो नहीं थी की हम सारे दोस्त इस तरह फिर से एक साथ बैठे होंगे, चाय पिने की आदत अभी भी नहीं पड़ी थी उसकी, जिसे मैं पसंद करता था. सामने से देखा तो कॉलेज का वो पहला ...