वो दफ्तर से घर तक का रास्ता...

वो एक दफ्तर ही तो होता है जहां मन को शांति और सुकून मिलता है. हां बात अलग है जब काम का प्रेशर कभी-कभी ओवर कंट्रोल होने लगता है और हम झल्ला उठते हैं. लेकिन उस झल्लाहट में भी एक सुकून ही तो होता है जिसका हमें बाद में अहसास होता है.और वो अहसास भी तब होता है जब हम खुद को किसी काम में व्यस्त या यूं कहूँ तो फंसाने के बारे में सोच रहे होते हैं और हमें कोई काम नहीं मिलता. खैर ये दर्द सिर्फ मुझे ही नहीं ऐसे तमाम लोगों को होता है जो ऐसी परिस्थितियों से गुजर रहे होते हैं.



घर में काम कम नहीं होते हैं लेकिन वो ऑफिस वाले काम से डिफरेंट भी तो होते हैं. घर में हमें नये कपड़े पहनने का क्रेज भी कहां होता है. जब तक नया स्टाइल लोगों को दिखाओ नहीं, उसमें भी अपना अलग टशन होता है जनाब. फिर सारा दिन काम में मन भी लगता है जब आपके आस-पास तारीफों के पुल बंध रहे होते हैं. काम के साथ साथ खाने की चीज़ों में भी इंटरेस्ट बढ़ने लगता हैं. अलग-थलग लोगों के अलग-थलग तौर तरीके और सबसे बड़ी चीज़ तो उनका स्वाद भरा खाना वो घर में कहां मिलता है..?


जब भी दफ्तर का काम खतम करके घर की ओर चलते हैं तो वो जो नज़ारे होते हैं ना, वो सब घर की छत से देखने को भी नहीं मिलते हैं. बात ही अलग होती है उस समय की जब नीचे छोटी-मोटी दुकाने सजी सी होती है. सीजन त्योहारों का जो होता है. हवा में भी अलग सी धुन होती है. हमें तब लगता है चलो कुछ दिन की काम से आजादी तो मिली. लेकिन काम से हमेशा की ही आजादी किसे पसंद होती है..घर पर ऑफिस वाली फीलिंग लाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होती है. क्योंकि आदत हमें उन चेहरों को देखने की हो जाती है जिन्हें हम सच में अपना मानने लगते है. 


थकान अच्छी लगती है वो जब हम बिना मन के सुबह उठते हैं और शाम को घर आते ही थकान से भरा चेहरा लटका लेते थे. चेहरे हमारे लटके आज भी हैं जो मन भर के घर के काम करने के बाद भी ऑफिस वाली थकान को मिस किया करते हैं. समय साथ दे या ना दे लेकिन उन दिनों की मौज मस्ती को भूला पाना रेत में नांव चलाने जैसा ही है. क्योंकि वो दफ्तर से घर तक का रास्ता बहुत याद आने लगता है.

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