काश...



क्या कहूँ...निःशब्द हूं.हां ये मानती हूँ कि आज जो मैं अपनी प्रतिक्रिया इस प्लेटफ़ॉर्म में रखने वाली हूँ, उस बारे में पूरा देश बात कर रहा है, ये प्रतिक्रिया थोड़ी देर से दे रही हूं, लेकिन दिल नहीं माना तो एक लंबे अरसे के बाद लिख रही हूं। सुशांत सिंह राजपूत के जाने का गम बहुत गहरा है। लेकिन उससे भी ज्यादा गम उनके यूं चले जाने की वजह का है। वजह डिप्रेशन..वजह भेदभाव..वजह हजारों की भीड़ में उस इंसान को अकेले छोड़ देना जो आँखों में सपने लिए स्ट्रगल कर रहा है.


बहुत ही गंदी फीलिंग होती है ये, जब आपके आस-पास बहुत लोग होते हैं, लेकिन उसके बाद भी आपसे बात करने वाला कोई नहीं होता, आपका हाल-चाल पूछने वाला कोई नहीं होता, कोई ये नहीं पूछता की कहीं तुमको मेरी जरूरत तो नहीं? पूछेगा भी क्यों कोई? किसी को अपनी जिंदगी से इतना वक्त निकालने का समय है? मोबाईल के उन तमाम तामझाम वाले फीचर्स से किसी को फुरसत कहाँ? 


किसी के चेहरे पर मुस्कुराहट देखने से इस बात का अंदाजा न लागाएं की वो तो खुश है, बेहद खुश...क्योंकि चेहरे पर उसकी मुस्कुराहट जो रहती है. लेकिन यकीन मानिए वो इंसान असल में अकेलेपन की उन गहराइयों में डूब रहा होता है...जहां से उसे वापस लाना सामने वाले को तब ध्यान में लाता है जब वो कुछ सुशांत जैसा कर जाता है, फिर क्या अफसोस और काश के अलावा हमारे पास कुछ नहीं होता...न ही वो समय और न ही वो इंसान  इस लिए सिर्फ समझना ही तो है..सिर्फ पहचानना ही तो है कि किसी आपके अपने को असल में आपकी जरूरत कब है..

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